शिक्षण के सिद्धांत Principles of Teaching: शिक्षा का एक निश्चित उद्देश्य होता हैं। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए शिक्षण विधि (Method of Teaching) मार्ग का काम करती हैं। शिक्षा के उद्देश्य की प्राप्ति और अप्राप्ति इस मार्ग या विधि पर ही निर्भर करती हैं। शिक्षण विधि को अपनाते समय टीचर को यह देखना चाहिए कि उद्देश्य की प्राप्ति में वह कहा तक सफल होगी?
एक अच्छा टीचर किसी पाठ को पढ़ाने से पहले उसकी शिक्षण विधि पहले से ही निर्धारित कर लेता हैं। इस शिक्षण-विधियों का निर्धारण वह कुछ निश्चित सिद्धांतो (Principles) के आधार पर कर सकता हैं। अब प्रश्न उठता हैं कि वे सिद्धांत कौन-से हैं? जिन सिद्धांतो को आधार बनाकर एक शिक्षक उन नीतितों का चयन करता हैं जिससे वह शिक्षण की योजना तैयार कर सकें।
तो दोस्तों आज हम आपको इस पोस्ट के माध्यम से शिक्षण के सिद्धांतों (Principles of Teaching) को विस्तृत रूप से बताने वाले हैं। अगर आप भी एक शिक्षक हैं या शिक्षण सम्बंधित कोर्स कर रहे हैं तो यह पोस्ट अंत तक जरूर पढ़ें। तो चलिए जानते हैं कि शिक्षण के सिद्धांत कौन-कौन से हैं? Principles of Teaching in Hindi
शिक्षण के सिद्धांत – Principles of Teaching in Hindi
शिक्षण के सिद्धांत को 14 भागों में विभक्त किया गया हैं जिनके आधार पे चलके एक शिक्षण अपनी शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को अधिक प्रभावशाली बनाने का कार्य करता हैं। जो निम्न प्रकार हैं –
1. प्रेरणा का सिद्धांत (Principle of Motivation) – प्रेरणा ही प्राणी को क्रियाशील बनाती हैं। व्यक्ति की प्रत्येक क्रिया जो किसी लक्ष्य को प्राप्त करना चाहती हैं, प्रेरणात्मक होती हैं। प्रेरणा को समझने के लिए प्रेरको को समझ लेना जरूरी हैं। प्रेरक (Motives) एक प्राणी की वह शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दशाएं हैं जो उसे निश्चित रूप से कार्य करने की ओर आकर्षित करती हैं।
एक बुद्धिजीवी का तर्क हैं कि “शिक्षण का अर्थ-प्रेरणा प्राप्त करना हैं।” यह प्रेरणा बालक को अध्यापक से मिलती हैं। सामान्य शब्दों में हम समझें तो प्रेरणा वह कला हैं जो बालक में रुचि उत्पन्न करने का कार्य करती हैं।
बच्चों में प्रेरणा पैदा करने के लिए एक अध्यापक निन्न उपाय कर सकता हैं जैसे- लक्ष्य स्पष्ट करना, छात्रों को उनके किये हुए कार्यो के परिणामो से अवगत कराना, दंड और पुरुस्कार, प्रशंसा और निंदा आदि।
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2. क्रिया का सिद्धांत (Principle of Activity) – आधुनिक शिक्षण विधि और प्राचीन शिक्षण विधि में सबसे बड़ा भेद यह हैं कि इसमें अध्यापक स्वयं सक्रिय न रहकर छात्रों को सक्रिय रखने का प्रयास करता है। अध्यापक यह प्रयास करता हैं कि बालक कक्षा में शारीरिक और मानसिक दोनों दृष्टि से सक्रिय रहें। आधुनिक शिक्षण विधि में “करके सीखने” (Learning by Doing) के सिद्धांत का पूर्ण रूप से पालन किया जाता हैं।
इस सिद्धांत को सबसे पहले फ्रोबेल ने महत्व दिया था। अध्यापक को चाहिए कि वह बालकों को कक्षा में अधिक से अधिक सक्रिय रखने का प्रयास करें। बालक जो चीज स्वयं करके सीखता हैं। वह अधिक टिकाऊ एवं जीवन मे उपयोगी होती हैं। “करके सीखने” की विधि का उपयोग छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी कक्षाओं में किया जा सकता हैं।
जॉन डीवी ने प्रयोग पर इतना बल दिया हैं कि उसका विद्यालय एक वर्कशॉप का रूप धारण कर लेता हैं। विद्यालय की वर्तमान मान्यताएं जैसे विद्यालय की प्रक्रिया केंद्रित (Activity Centered), समुदाय केंद्रित और विद्यालय का समाज का लघु रूप होना, करके सीखने के सिद्धांत की प्रधानता को सूचित करता हैं।
3. जीवन से संबंध जोड़ने का सिद्धांत (Principle of linking with life) – मनुष्य के अंदर यह एक स्वभाविक प्रवृति पाई जाती हैं कि वह उन क्रियाओं में विशेष रुचि लेता हैं जिनका कि उसके जीवन से किसी न किसी प्रकार का संबंध होता हैं और रुचि लेने के कारण वह उन क्रियाओं को आसानी से सीख भी लेता है। इसका साधारण अर्थ हैं कि किसी भी विषय को बच्चों के जीवन और उनके आस पास के वातावरण से संबंध स्थापित करके पढ़ाना चाहिए।
4. रुचि का सिद्धांत (Principle of Interest) – जिस विषय या क्रिया में हमारी रुचि होती हैं उसको हम आसानी से सीख लेते हैं या उसे हम अधिक सक्रिय होकर सीखते हैं। तो एक अध्यापक को छात्रों को किसी विषय को पढ़ाने से पहले उस टॉपिक के प्रति बच्चों के अंदर रुचि उत्पन्न करनी चाहिए।
5. निश्चित उद्देश्यों के सिद्धांत (Principle of Definite Aim) – यह स्वभाविक हैं कि हम उस काम मे रुचि नही लेते जिसका उद्देश्य हमें पता नहीं होता। कोई भी व्यक्ति किसी न किसी काम को इसीलिए करता हैं क्योंकि उस कार्य को पूरा कर लेने के बाद प्राप्त सफलता या उद्देश्य का उसे पता होता हैं। इसीलिए एक शिक्षक को किसी टॉपिक को पढ़ाने से पहले छात्रों के सामने उसके उद्देश्य निश्चित करा देने चाहिए। जिससे उस टॉपिक के लाभ को प्राप्त करने के लिए वो कक्षा में सक्रिय भूमिका अदा करें।
6. चयन का सिद्धांत (Principle of Selection) – इस सिद्धांत के अनुसार शिक्षण में प्रयुक्त होने वाले तत्वों का चयन कर लेना चाहिए और अनुपयोगी तत्वों को छोड़ देना चाहिए। कुशल अध्यापक पढ़ाने से पहले जिस प्रकार पाठ योजना तैयार करता हैं यह चयन के सिद्धांत का ही उदाहरण हैं। शिक्षण के सिद्धांतों (Principles of Teaching) में यह एक महत्वपूर्ण आयाम हैं।
विषयों का चयन करते समय शिक्षक को निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए –
1. विषय सामग्री की मात्रा इतनी हो कि उससे शिक्षण उद्देश्यों की प्राप्ति हो सकें।
2. विषय सामग्री छात्रों की रुचि और योग्यता के अनुसार हो।
3. समय के अंदर समाप्त हो जाने वाला हो।
4. विषय सामग्री जीवन मे उपयोग होने वाली हो।
7. विभाजन का सिद्धांत (Principle of Division) – इस सिद्धांत के अनुसार जो विषय छात्रों के सामने प्रस्तुत किया जाने वाला हैं उसको क्रमानुसार कुछ निश्चित सोपानों में विभक्त कर लेना चाहिए। जिससे पढ़ाने में और छात्रों को पढ़ने व समझने में आसानी हो।
8. आवृति का सिद्धांत (Principle of Revision) – यह सिद्धांत इस बात पर ध्यान देता हैं कि किसी क्रिया या टॉपिक को सीखने पर आत्मसात करने के बाद उसको कई बार दोहराना चाहिए। सामान्य शब्दों में कहे तो किसी क्रिया का बार-बार अभ्यास करने से वह हमारी आदत बन जाती हैं। इस बात का लाभ शिक्षक को शिक्षण के दौरान जरूर उठाना चाहिए।
9. व्यक्तिक विभिन्नता का सिद्धांत (Principle of Individual) – प्रत्येक बालक दूसरे बालक से मानसिक, शारीरिक और रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न होता हैं। जिस कारण एक शिक्षण को ऐसी शिक्षण प्रक्रिया या तकनीक को अपनाना चाहिए जो सभी छात्रों के लिए उपयोगी हो।
10. पूर्व ज्ञान का सिद्धांत (Principle of Previous Knowledge) – इस सिद्धांत के अनुसार छात्रों को किसी भी टॉपिक को उनके पुरानी कक्षा में पढ़ाये गए टॉपिक से लिंक करके पढ़ाना चाहिए। जिससे छात्र उस टॉपिक पर आसानी से कनेक्ट हो सकें।
11. सह-संबंध का सिद्धांत (Principle of Correlation) – इस सिद्धांत के अनुसार बालको को विभिन्न विषयों का ज्ञान एक-दूसरे से संबंधित करके देना चाहिए।
12. योजना का सिद्धांत (Principle of Planing) – एक अच्छा शिक्षक जिस विषय को पढ़ाता हैं उसकी रूपरेखा, पढ़ाने का ढंग, पढ़ाने में काम आने वाली सहायक सामग्रियों एवं उसके उपयोग के विषय मे पहले से ही योजना बना लेता हैं। यह योजना लिखित और मौखित भी हो सकती हैं।
13. रचना का सिद्धांत (Principle of Creation) – सफल शिक्षण वहीं हैं जो बालकों की रचनात्मक शक्ति का विकास करता है। इसके लिए अध्यापक को चाहिए कि वह शिक्षण में बालकों को इस प्रकार की क्रियाओं के लिए प्रोत्साहित करें जो रचनात्मक हो।
14. जनतांत्रिक व्यवहार का सिध्दांत (Principle of Democratic Dealing) – अध्यापक को चाहिए कि वह शिक्षण में बालको को आत्म-प्रकाशन (Self Expression) का पूरा अवसर दे। इससे छात्रों में सोचने समझने की प्रवर्ति विकसित होती हैं और वह दार्शनिकता की ओर अग्रसर होते हैं।
निष्कर्ष – Conclusion
शिक्षण के सिध्दांत (Principles of Teaching) एक ऐसी तकनीक हैं जिसको अपनाकर शिक्षण अपने शिक्षण कौशल का विकास कर सकता हैं और शिक्षण के उद्देश्यों को पूर्ण रूप में प्राप्त कर सकता हैं। प्रत्येक शिक्षक को चाहिए कि वह अपने शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में इस सिद्धांतो का पालन करें।
तो दोस्तों आज आपने हमारी इस पोस्ट के माध्यम से जाना कि शिक्षण के सिद्धांत कौन-कौन से हैं? (Principles of Teaching in Hindi) हम आशा करते हैं कि आपको हमारी यह पोस्ट पसंद आई हो। अपने विचारों को कमेंट बॉक्स की सहायता से हम तक अवश्य पहुचाये।